कहानी: 5/5
पात्र: 4.5/5
लेखन शैली: 5/5
उत्कर्ष: 4.5/5
मनोरंजन: 4.5/5

नीलोत्पल मृणाल युवा पीढ़ी के लब्ध-प्रतिष्ठ उपन्यासकार हैं। उनके प्रथम उपन्यास ‘डार्क हॉर्स’ के लिए उन्हें सन 2016 के साहित्य अकैडमी युवा पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। वह मूलतः बिहार के निवासी हैं, परंतु झारखंड राज्य के गठन के कारण अब वे झारखंड वासी हो गए हैं। यही कारण है कि उनके उपन्यासों में बिहार और झारखंड की झलकियां सर्वत्र दिखाई देती हैं ।

“औघड़” उपन्यास का प्रथम संस्करण जनवरी 2019 में हिंदी युग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह उपन्यास आदर्शवादी ना होकर विशुद्ध यथार्थवादी उपन्यास है जो पूर्णतः ग्रामीण परिवेश को लेकर रचा गया है। इस उपन्यास के माध्यम से निलोत्पल मृणाल ने एक आम ग्रामीण के विसंगतियों और विषमताओं से भरे जीवन की एक-एक परत को उधेड़ कर पाठकों के सम्मुख रख दिया है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर उपन्यास लेखन का जोखिम बहुत कम ही लोग उठाते हैं।

उपन्यास का केंद्र मलखानपुर और सिकंदरपुर गाँव हैं। इन गाँवों में ग्रामीणों की सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियाँ, धार्मिक पाखंड, जाति-पाँति, छुआछूत, महिलाओं की स्थिति, राजनीतिक अपराध, पुलिस और प्रशासन तथा सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था की नग्न तस्वीर प्रस्तुत करना उपन्यासकार का मूल उद्देश्य रहा है। भारतीय समाज में मुख्यत: उच्च, मध्यम और निम्न यही 3 वर्ग है। इन तीनों वर्गों की मानसिक चेतना और उलझनों का लेखा-जोखा उपन्यास के प्रति कथाकार की निष्पक्षता को दर्शाता है। समय बदला, परिस्थितियां बदलीं और समाज में जागरूकता भी आई है। परंतु ग्रामीण समाज का एक वर्ग अभी भी उपेक्षित है।

‘औघड़’ उपन्यास का मुख्य पात्र बिरंची है। जो शिक्षित दलित है और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है। वह जीवनपर्यंत समाज में दलितों को उनका सम्मानीय स्थान दिलाने के लिए संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष पूंजीपति सवर्णों, पुलिस,और प्रशासन की तिकड़ी से होता है। वह लड़ता है, गिरता है, उठता है और पूरे दलित समाज को दिशा तथा दृष्टि देने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है।

‘औघड़’ उपन्यास में पात्रो की संख्या बहुत है। सभी पात्र समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इन्हीं के माध्यम से उपन्यासकार ने वैयक्तिक और जातिगत विशेषताओं को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। पात्रों का आधिक्य उपन्यास में कहीं भी बाधक नहीं है वरन यह सभी पात्र कथानक को गति प्रदान करते हैं और ग्रामीण भारत की वास्तविक दुश्वारियों से पाठकों का परिचय कराते हैं। 

जहां तक ‘औघड़’ उपन्यास की भाषा का प्रश्न है उपन्यासकार नीलोत्पल मृणाल अनूठी भाषा के चितेरे हैं। उनकी भाषा समय और पात्र दोनों के अनुसार बड़ी तेज़ी से अपना रूप परिवर्तित कर लेती है । शिक्षित पात्रों की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का आधिक्य है। यही नहीं कहीं-कहीं अंग्रेज़ी के पूरे के पूरे वाक्यों का प्रयोग भी देखने को मिलता है। क्योंकि उपन्यास बिहार और झारखंड की पृष्ठभूमि पर रचा गया है, इसीलिए स्थानीय शब्दों जैसे परपराने, लिज-लिजी, अलर-बलर, भीतरघुन्ना, गोड़, गुप्पकड़ी, लईका-बच्चा, सलटाए आदि ने उपन्यास को आंचलिक सौंदर्य प्रदान किया है।

मुहावरों के प्रयोग से भाषा प्रभावोत्पादक बन पड़ी है। आज के युवा उपन्यासकार जिस प्रकार गाली युक्त भाषा का प्रयोग करते हैं उतनी गाली युक्त भाषा ‘औघड़’ में देखने को नहीं मिलती है। नीलोत्पल मृणाल ने गालियों का प्रयोग केवल वहीं किया है जहाँ बहुत ज़रूरी हुआ है। दूसरी भाषाओं के ऐसे शब्द जो हमारी हिंदी के अभिन्न अंग है और भाषा को व्यवहारिक बनाते हैं, का प्रयोग भी ‘औघड़’ में देखने को मिलता है |

यही नहीं अंग्रेजी शब्दों का देहातीकरण भी ‘औघड़’ उपन्यास की भाषा के सौंदर्य को द्विगुणित करता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है – रिजल्टवा, कैंडिडेटयाना, डोक्टर बाबू, संटरो कार, पॉलिटिक्से, इंपोटेंट आदि। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रयोग भी जो नितांत नवीन है नीलोत्पल मृणाल की भाषा को दूसरे उपन्यासकारों से श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं। यह प्रयोग हैं – डरमी कूल सुकून, पान परागी स्वर में, धर्म को आटे में सानकर, लुच्चई उड़ान, इमोशनल उड़ान, मखमली सी कुढ़न, दानवीरता का फ्लेवर आदि।

अगर उपन्यास का लेखन शैली की दृष्टि से आकलन किया जाए तो हम पाते हैं कि वातावरण चित्रण, पात्रों की आंतरिक तथा वाहय व्यक्तित्व की रेखाओं को रेखांकित करने के लिए उपन्यासकार ने सीधी सरल वर्णनात्मक शैली का ही प्रयोग अधिक किया है। इस प्रकार के वर्णनों से पाठक स्वत: जान जाता है कि उपन्यासकार की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति और विषय पर पकड़ बहुत पैनी है। उपन्यास के वे अंश जहां दलित समाज के उत्पीड़न को दर्शाया गया है, मन-मस्तिष्क दोनों को झकझोर कर रख देते हैं। 

सामाजिक विषमताओं से लड़ता और जूझता हुआ दलित वर्ग किस प्रकार साहस और उम्मीद के सहारे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का अनवरत प्रयास करता है, यही संघर्ष ‘औघड़’ का यथार्थवाद है और इसको सामने लाना नीलोत्पल मृणाल का एकमात्र लक्ष्य भी है। 

‘औघड़’ की भाषा और लेखन शैली से मैं इतनी अधिक प्रभावित हुई हूं कि इस की कुछ झलकियां प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूं। जैसे “समाज का कालिख मुंह में लगाने से अच्छा है मांग में झूठ का सिंदूर लगाना”, “गरीब का दुख अपना होता है इसमें कोई हिस्सा बंटवारा नहीं होता”, ”एक कमजोर के पास भी मजबूत ईमान तो हो ही सकता है”| 

इस प्रकार की भाषा नारी की परवशता दर्शाती है तो नीलोत्पल जी की सोच और उनके अनुभवों का भी परिचय देती है। इस उपन्यास में एक ओर ममतामई मां की शीतल छाया है, तो दूसरी ओर अनन्य मित्र का निश्छल प्रेम और निष्ठा भी है। मां की ममता वाले दृश्य नीलोत्पल मृणाल के मातृ प्रेम को प्रदर्शित करते हैं।  

ऐसे ही कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं – “रात कितनी भी अंधेरी हो पर एक मां अपने बच्चे के पास रोशनी का एक टुकड़ा रख ही जाती है” तथा “मां ऐसी हाल में खुद कंबल बन बच्चे को ढ़क पिता के बरसते आंख के गोलों से बचा ही ले जाती है”।

सार रूप में हम कह सकते हैं कि अगर उपन्यास में एक ओर दलितों की सामाजिक स्थिति का वर्णन किया गया है तो दूसरी ओर बिहार और झारखंड के चुनावों में बाहुबलियों के प्रभुत्व को भी दर्शाया गया है। इसमें प्रेमचंद जी का यथार्थवाद है तो फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों की आंचलिकता भी है। ऐसी उत्कृष्ट रचना के लिए नीलोत्पल मृणाल बधाई के पात्र हैं|

नीलोत्पल मृणाल गांव से हैं और उन्होंने गांवों के लिए एक ग्रामीण बन कर लिखा है। उनका मानना है कि प्रेमचंद जैसा जीवन जीने वाला ही लेखन की भूख को बरकरार रख सकता है। 

जो पाठक केवल मनोरंजन के लिए उपन्यास पढ़ते हैं ‘औघड़’ उपन्यास उन लोगों के लिए नहीं है क्योंकि इसमें मनोरंजन के अवसर ना के बराबर हैं। यह उपन्यास उन लोगों के लिए है जो समाज से सरोकार रखते हैं, सामाजिक विषमताओं को जानना-समझना चाहते हैं और इस दिशा में कुछ कर सकने का जज़्बा रखते हैं। 

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