कहानी: 4.5/5
पात्र: 4.5/5
लेखन शैली: 4.5/5
उत्कर्ष: 4.5/5
मनोरंजन: 4.5/5
दिव्य प्रकाश दुबे नई हिंदी के सशक्त और लोकप्रिय हस्ताक्षर हैं। वह कथाकार के साथ-साथ उत्कृष्ट गीतकार भी हैं | उनका जन्म 8 मई 1982 को लखनऊ में हुआ था | उन्होंने आईआईटी रुड़की से बीटेक तथा तदुपरांत एमबीए तक शिक्षा प्राप्त की है।
उनके दो कहानी संग्रह “मसाला चाय” एवं “नियम और शर्तें लागू” प्रकाशित हो चुके हैं। उनके उपन्यास “मुसाफिर कैफे” और “अक्टूबर जंक्शन” ने सभी वर्गों के पाठकों में अभूतपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की है। अभी हाल ही में प्रकाशित उनका उपन्यास “Ibnebatuti” सफलता के सभी आयामों को स्पर्श करता हुआ पाठकों को अपनी और निरंतर आकर्षित कर रहा है।
आज मैं दिव्य प्रकाश दुबे के इसी नवीनतम उपन्यास “Ibnebatuti” पर अपने विचार आप सभी के साथ साझा करना चाहती हूं यह उपन्यास एक ऐसे विषय को लेकर लिखा गया है जो जीवन के समय चक्र में घूमते -घूमते अछूता ही रह जाता है और हमारे देश की सामाजिक संरचना कभी इस विषय पर हमें सोचने का अवसर ही नहीं देती।
यह उपन्यास मां और पुत्र के ऐसे संबंधों पर आधारित है जिसमें एक ओर मां का ममत्व है तो दूसरी ओर पुत्र का मां के प्रति चिंता का भाव | दोनों ही किरदारों का संबंध मां और बेटे के अतिरिक्त उससे कहीं ऊपर है | जिसे मित्र भाव या एक दूसरे के अभिभावक का संबंध कहें तो गलत ना होगा।
जीवन की अनवरत चलने वाली यात्रा में मनुष्य विशेषकर माताएं अपने दायित्व को पूरा करते-करते अपने अतीत और अपने अस्तित्व को विस्मृत कर देती हैं | वह परिस्थितियों से जूझती है, स्वयं को संभालती हैं और आगे बढ़ जाती हैं परंतु, क्या कोई ऐसा है जो उस मां की परवाह करता है?
मां के अतीत की कड़ियों को जोड़ने में एक पुत्र किस प्रकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है यहीकथानक का मुख्य बिंदु है | सरसरी तौर पर देखने से तो यही प्रतीत होता है कि यह एक आम भारतीय मां-बेटे की कहानी है | परंतु, इस उपन्यास में कुछ तो ऐसा चुंबकीय आकर्षण है जो पाठकों को अपनी ओर बरबस ही खींच लेता है।
“Ibnebatuti” उपन्यास की सच्चाई, भावों की गहनता, रिश्तों की मजबूती और मनोभावों की मार्मिकता से पाठकों का साक्षात्कार उपन्यास पढ़ने के बाद ही संभव है | दिव्य प्रकाश दुबे की यदि लेखन शैली की बात की जाए तो उन्होंने अपने उपन्यास में आम भारतीय द्वारा दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली हिंदी का प्रयोग किया है जिसमें एक अनूठापन है |
उनका शब्द -चयन, वाक्य-विन्यास पाठकों को लुभाता है | उनकी सहज-सरल हिंदी मर्म को बहुत गहराई तक स्पर्श करती है और प्रत्येक पाठक को अपनी मां के अंतर्मन में झांकने के लिए विवश कर देती है।
उनकी भाषा बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। एक उदाहरण पर दृष्टिपात कीजिए-“इस पल में उन चार आंखों के अलावा पूरी दुनिया थम गई थी।आंखों में बीते हुए साल, बरसात, गर्मी, रतजगे, गुस्सा, पानी, समंदर, नदी, बर्फ सब कुछ था”।
उपन्यास का शीर्षक “Ibnebatuti” कौतूहल उत्पन्न करता है | इस शब्द का कोई विशेष अर्थ ना होते हुए भी इसमें गहन अर्थ छुपा हुआ है और उपन्यासकार ने इस शब्द का सटीक अर्थ निकालने की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से पाठकों पर छोड़ दी है।
दिव्य प्रकाश दुबे ने अपने इस उपन्यास में पात्र-संयोजन बहुत सोच-विचार कर किया है।इसीलिए इसमें पात्रों की भीड़ नहीं है। प्रत्येक पात्र सुलझा हुआ है और सीधे-सादे मार्ग पर चलता हुआ कथानक को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है।समूचा उपन्यास शालू अवस्थी तथा उनके पुत्र राघव को लेकर रचा गया है।
कुमार आलोक का चरित्र भी बेजोड़ है और उनके बिना तो कहानी पूर्णता को प्राप्त कर ही नहीं सकती थी।इसके अतिरिक्त निशा, प्रोफेसर चटर्जी, पुत्तन भैया आदि भी उपन्यास के महत्वपूर्ण पात्र हैं और अपनी उपस्थिति को सार्थक सिद्ध कर देते हैं।
156 पृष्ठों के छोटे से कलेवर में समाया “Ibnebatuti” उपन्यास जीवन के एक महत्वपूर्ण परंतु अनछुए पहलू को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। “मां कभी लड़की थी या बाप कभी एक लड़का था”, यह सोचना इतनी छोटी सी बात है लेकिन लगता है कि मां बाप बूढ़े ही पैदा हुए थे | हम कभी यह सोचना-समझना ही नहीं चाहते कि हमारे माता-पिता का भी कोई अतीत होता है, जिसमें बिखराव संभव है अलगाव नहीं।
दिव्य प्रकाश दुबे का उपन्यास “इब्नबतूती” पहले पन्ने से ही पाठकों को बांधे रखने में पूर्णतः समर्थ है |मैंने जब इस उपन्यास को पढ़ना प्रारंभ किया तो मुझे तब तक चैन नहीं आया जब तक मैंने इसे पूरा नहीं पढ़ लिया।
उपन्यास में अनेक स्थान ऐसे हैं जो इतने मार्मिक हैं कि बरबस ही आंखों की कोरों को भिगो जाते हैं। इसे पढ़ने के लिए एक नई सोच और नई दृष्टि की आवश्यकता है और यदि हम घिसी-पिटी सामाजिक परिपाटी पर चलने के अभ्यस्त हो चुके हैं तो ऐसी स्थिति में भी यह उपन्यास पाठकों को नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर देता है।
मेरा अपना मानना है कि यह उपन्यास सभी वर्गों के पाठकों को पढ़ना चाहिए।विशेष रूप से ढलती उम्र के माता-पिता तथा उनकी संतानों के लिए वास्तव में यह एक मार्गदर्शक है।
ऐसे अनछुए विषय पर इतनी उत्कृष्ट रचना के लिए दिव्य प्रकाश दुबे बधाई के पात्र हैं।अपनी बात मैं पुस्तक के अंतिम वाक्य के साथ समाप्त करना चाहूंगी-“रास्ते के कुछ मोड़ इतने खूबसूरत होते हैं कि मंजिल ना मिले, उस मोड़ पर आकर यात्रा पूरी हो जाती है। यह वही एक मोड़ था।वह मोड़ जहां से नई शुरुआत हो भी सकती है और नहीं भी”।
अंत में उपन्यासकार ने कुछ प्रश्न भी उठाए हैं जिनके उत्तर उन्होंने पाठकों पर छोड़ दिए हैं तथा इनके उत्तर हम सब की व्यक्तिगत सोच और मानसिकता पर आश्रित हैं।
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